हॉलिवुड को कैसे टक्कर देंगे हम
पाकिस्तानी फिल्मों को लेकर भी यही हाल है।
- पाकिस्तान की कोई फिल्म 11 साल बाद भारत के सिनेमा हॉल में आ रही है। इसका नाम है ‘जॉयलैंड’। यह पाकिस्तान की तरफ से इस साल ऑस्कर में भी गई है। दिलचस्प बात यह भी यह फिल्म पाकिस्तान में भी कुछ तबकों की घोर आलोचना का विषय रही है, यहां तक कि कुछ समय के लिए इस पर बैन भी लगाया गया था।
- पिछली रिलीज्ड फिल्म शोएब मंसूर की ‘बोल’ थी।
- सोचिए कि हम में से कितने लोग जानते हैं कि सरमद सहबाई, फरजाद नबी, सरमद सुल्तान खूसट जैसे संजीदा लोग पाकिस्तानी सिनेमा में बड़े बदलाव ला रहे हैं।
- कुछ साल पहले ‘माहे मीर’ नाम की पाकिस्तानी फिल्म की भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा हुई थी। यह फिल्म भी पाकिस्तान से ऑस्कर अवॉर्ड के लिए ऑफिशल नॉमिनेशन थी। भारत में कुछ फिल्म फेस्टिवल में तो दिखाई गई, सराही गई पर आम जनता के लिए थिएटर रिलीज नसीब नहीं हु
सांस्कृतिक आवाजाही में खलल
राजनीतिक-कूटनीतिक संबंधों ने सांस्कृतिक आवाजाहियों में भी खलल डाला है। उसके लिए सरकारों के पास अपने वाजिब तर्क भी होंगे। पर एक मुकम्मल तर्क यह भी है कि साझे इतिहास और सांस्कृतिक समानताओं वाले उपमहाद्वीप के देशों के बीच अमन और मुहब्बती रिश्ते सांस्कृतिक आवाजाहियों से बेहतर बनते हैं। कलाएं आएं-जाएं, कलाओं से जुड़े लोग आएं-जाएं, जोड़ने वाली बातों को पुख्ता किया जाए, तभी तो आनेवाला कल आज से बेहतर बन सकता है।
- ‘द लीजेंड ऑफ मौला जट्ट’ हाल ही पाकिस्तान में रिलीज होकर व्यावसायिक रूप से वहां की अब तक की सबसे कमाऊ फिल्म बनी है, जो पंजाबी भाषा में बनी है। इसे भारत में पीवीआर ने रिलीज करने की बात कही थी, तारीख भी तय की थी, लेकिन यह रिलीज नहीं हुई।
- किन्हीं कारणों से सेंसर बोर्ड ने इस फिल्म को पास नहीं किया, जबकि ‘द लीजेंड ऑफ मौला जट्ट’ दोनों ओर के पंजाब में सदियों से प्रचलित लोकप्रिय लोककथा का फिल्मी रूप है, जिस पर पहले भी दोनों तरफ फिल्में बन चुकी हैं।
दक्षिण के सिनेमा ने जिस तरह पिछले कुछ समय में भारतीय सिनेमा, पैन इंडियन सिनेमा को पुनर्परिभाषित किया है, अखिल महाद्वीपीय सिनेमा के भी आसार मुझे दिखाई देते हैं। ऐसे खयाल या कहानियां जिसे उपमहाद्वीप अपने को रिलेट करते हुए महसूस करे, जिसे केवल विदेश के या पड़ोस के अच्छे सिनेमा से आगे अपने ही सिनेमा के रूप में ऑर्गेनिकली ग्रहण करे। माना जाता है कि किसी भौगोलिक सांस्कृतिक इलाके के दुख और उम्मीदें अगर समान हों तो सपने भी एक से होंगे। सिनेमा में वह एकता क्यों नहीं सकारात्मक आकार ले सकती? भारतीय उपमहाद्वीप के साझे दुखों और उम्मीदों की फेहरिस्त तो इतनी लंबी है कि गिनते-गिनते उंगलियां कम पड़ जाएं।
रामायण, महाभारत सहित सैकड़ों पौराणिक कहानियों का भौगोलिक लोकेल इतना साझा है, कहानी कहते- सुनते- देखते हुए उपमहाद्वीप का कोई इलाका अपरिचित या पराया नहीं लगता। कुछ साल पहले एक पंजाबी फिल्म आई थी- द ब्लैक प्रिंस। मुझे इस फिल्म से कम से कम भारतीय उपमहाद्वीप की फिल्म के रूप में दर्शकों के अच्छे रिसेप्शन की उम्मीद थी। पंजाबी के लोकप्रिय गायक सतिंदर सरताज की नायक के रूप में पहली फिल्म थी। पंजाबी के अलावा हिंदी, अंग्रेजी, फ्रेंच में भी रिलीज की गई, पर किन्हीं कारणों से दर्शकों पर वह जादू नहीं कर पाई। फिर भी मेरी उम्मीद कायम है। कोई न कोई फिल्म उपमहाद्वीप की सबसे बड़ी फिल्म होकर हॉलिवुड को टक्कर देगी और उसमें यह अहंकार भाव नहीं होगा कि यह बॉलिवुड फिल्म नहीं है या दक्षिण भारत की फिल्म है। पड़ोस के साथ संयुक्त निर्माण भी एक सुंदर खयाल है।
- भारत के चहेते, वरिष्ठ फिल्मकार श्याम बेनेगल की बांग्लादेश के निर्माता शेख मुजीबुर्रहमान पर फिल्म आने वाली है।
- क्या ही सुंदर इत्तफाक है कि हाल ही हंसल मेहता ने अपनी ताजा फिल्म ‘फराज’ में बांग्लादेश के एक नायक को मुंबई के सिनेमा की तरफ से एक सौगात की तरह पर्दे पर उतारा है।
संबंधों की बेहतरी
यह विचार, कहानियों का आदान-प्रदान भी उपमहाद्वीप के सिनेमा ही नहीं, पहले सांस्कृतिक और फिर राजनीतिक संबंधों को बेहतर बनाने में सहयोग करेगा। हम बेहतर दुनिया बना पाएंगे क्योंकि जेहनी उदारताओं और एक दूसरे को समझने से ही अमन-बेहतरी के रास्ते बनते हैं। हवाएं और कलाएं सरहद नहीं देखतीं। सिनेमा जैसी कलाएं दिलों को जोड़ती हैं, दुख बांटती हैं, साझे सुंदर भविष्य के सपनों में रंग भरती हैं। ‘जॉय लैंड’ की रिलीज का स्वागत होना चाहिए और यह भी होना चाहिए कि एक सिलसिला बने, क्योंकि मोहब्बतें भी कोई पड़ाव या घटना नहीं होतीं, बहते दरियाओं सा सिलसिला होती हैं। मोहब्बतों और दरियाओं की इन रवानियों में ही जिंदगी की, दिलों की धड़कनें है।
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